ध्यान में ये ध्यान लागे ऐसे।
नित पथ कौनसा देख पायें।।धृ।।
भोर ही भोर जंहा छायें ।
गहरे रंग के नही ये सायें।
उदय निश्चिंती प्रकृती प्रतिमा।
रोशनीभरी उजियारी गरिमा।
छाये भला अंधेरा किस तरह से।।१।।
दिखलांऊ वो भोर किस राहों से ।
मुग्ध गगन के झिलमील सांये।
फिर उभर आये न राहे कैसे ।
चंचल, शीतल, कोमल, जल न ठहरे।
नीत संग बह ले, मेरे मन महके ।
बुंद बुंद मे भिगे खुशी के झरोंके ऐसे ।
लहर लहर खिले पुनित पावन जैसे।।2।।
ये वो नजारा रोशन हर सवेरा हो जैसे।
नजरोंकी जाली से उठकर देख जरा।
सुखद थंडी सहमी, गर्मी की बात कैसे।
जीवन प्रकृती का रंग गहरा हो कैसे।।3।।
अर्थः- चित्त की एकाग्रता में जब ध्यान मे भी ध्यान लगता है फिर वो ध्यान कैसा होना चाहिये। कैसा हो सकता है। उस एकाग्रता में तो अलगसे, निराले, जो कभी पहले महेसूस न किये हो ऐसे नित्य नये पथ दिखते है। आकर्षित करते है। जो हमे बार बार अपनी तरफ खिंचते है। क्या कोई मायाजाल, या मोहमाया, या निरमोही रास्ता है। पता ही नही लगता आखिर ये क्या है। इसे क्या कहते है। लेकीन कुछ अलग ही सुकून है, बस उसी सुकून का ही तब होश और खयाल होता है। बहोत कोशिश होती है उसे शब्दोंमे, अर्थोंमे घोल दूं, पर नही हो पाता… बस उस अवस्था को महेसूस किया जा सकता है। सोचती हूं कौनसे अल्फाज लिखूं की वो बंया हो जाये…पर वो शब्द मिलते ही नही..फिर वंहा से वापस अपनी भुमिका मे आती हूं और उस ध्यान को फिर प्रकृती के अनगिनत सुक्ष्म रूपोंमे, ईश्वर के रूपोंमे, अविष्कारोंमे , नन्हे बच्चों की हसीं मे ….या कभी अपने खयालो मे ढुंढती फिरती हूं। जरा नजदिक जाने की कोशिश करती हूं। लेकीन फिर बिच मे अटक जाती हूं। क्या हमेशा उसी ध्यान मे ध्यानी क्यूं नही रह पाती मै। अचानक से कोई ढकेल देता है। अचानक से आभास से बाहर खिंचती आती हुं मैं। मैं ये कंहा होती हूं। कौनसी जादू है ये। न कोई गहरा दाग, रंग कहीं नजर आता नही…नजर आता है तो बस….प्रकृती की उदय निश्चिंती…हर तरफ उजियारा ओर भोर का विलोभनीय दृश्यतारा…. अगर हर तरफ ऐसा नजारा है तो फिर अंधेरा किसको दिखेगा? न मुझे न मेरे साथ चलनेवालोंको… मेरे नजरीयेसे देखनेवालोंकों….
चलो मै तो देख चुकी हूं आपको भी दिखाती हूं। की जब मन मे ध्यान, शांती और सवेरा छाता है तो अंधेरा कब कैसे नजर आता है? ये हो ही नही सकता… सबकुछ मुग्धमय होता है। झीलमील गगन है क्योंकी उस ईशशक्तीने रोशनी के साये सब जगह ऐसे फैलाये है मानो दूर दूर तक सब दिखाई देता है। मन मे ना कोई आस, शंका न रहनेवाली ये अवस्था.. बस न खतम होनेवाली खूशी जो किसी चिज की मोहताज न हो बस अपने आपमे परिपूर्ण वलय एक से बढकर एक खूशी के वलय जिसके उपर मैं स्वार होके आनंदित हुं। चाहे मेरे पास कुछ हो न हो।…बस सबकुछ स्थिर, अविचल मगर रूहानी…लोहचुंबक की तरह जो जकडे रखा है वो इस मनशक्तीको वापस आनेे का ना रास्ता और ना मन की गरिमा ….धुंदली हवांमे निश्चल त्यागी फूल… सब उस ईश के चरणो मे अर्पित… कोई इच्छा, ना कोई आस, बस सबकुछ अपने आपसे समर्पित… फीर इससे बाहर क्यूं आंऊ मै। ये बार बार महसूस करके, देख के, अनुभव करके अब इसकी आदी हो गयी हूं मै। चलो खुदके साथ सबको समझाने की कोशिश तो करके देंख लूं।
जैसे सुबह की कोमल किरणे… चंचल, शीतल, स्वच्छ पाणी में घूल जाते है और मुझे भी, मेरे अस्तित्व को अपने संग घोलके….हर इक बुंद बुंद मे सामील करके झरने की तरह बहा ले जाते है। तब मेरा अस्तित्व मैं नही होती हूं, मै वो ओजसवाली बूंद बन जाती हुं। फिर वो पाणी के गुण भी मुझ मे आ जाते है। और पाणी की तरह लहर ,झील भी बन जाती हूं। लहर की तरह खिल जाती हूं। मुझमे मै नही रहती। कभी पाणी, तो कभी घुली हुई फूल की खुशबू, कभी लहर, कभी बुंद तो कभी प्रकृती का कोई रूप बन जाती हूं। कभी सृष्टी निर्मितफूल, जल की बुंद तेजोमयकिरण, वायू की ठंडी लहर, अग्नी की शलाका बनके खुदको खोती हूंं। तभी तो खुदसे मिलती हूं। हां मै अपनी ही नजरोंसे खुद को देख पाती हुं। देखा है मैने प्रकृती के रंगो, नजारो मे पृथ्वी, तेज, वायू, अग्नी, पाणी खुदको किसीभी रूप मे ढलते देखती हूं। तभी तो हर रोज नित नयी राह, वो पथ देख के आती हुं। ये वो नजारा है जो मै रोज खुदको इसी रूप मे ढली हुई देखना चाहती हूं। पर ठहरती नही हूं। नजरो की जाली से उठकर जो देखती हूं। ये थंडभरी, सुहावनी बाते संभाल के रखती हुं कंही सिकूड के रह न जाये इसलिये मन की हवा देती रहती हूं। शायद यही जीवन प्रकृती है। जिससे निर्माण हो उसी मे व्यतीत हो जाओ। दोनो अस्तित्व जैसे एकही हो। निर्मलता का प्रतिक प्राकृतिकता। इसलिये तो जीवन की गर्मी से, दुखसे, किसीसे, किस का अहंकार है मुझे? मुझे कुछ फरक नही पडता है। कुछ नही हुं मै और कोईभी नही। बिलकुल हलकी हवा…. कोई पर जैसे लगे हो धीरे धीरे अपना सब कुछ सबकुछ खोती हुुुई और सबकुछ पाती है हुई एकही है सब एकदम तरल निचे, हलके हलके होते हुये उपर उसके उपर बस शांंती की तरफ…..। बस समझो तो, जानो तो, मानो तो, महेसूस करो तो सब हैै बेमतलब। आना चाहोगे ऐसे रास्तोंपर…जंहा खुदको खोना पडता है। ढुंढना बिलकुल नही होता। मै अपने मे मस्त मगन खोई रहती हूं। जब मेरा जीवन प्रकृती के सुनहरी भोर के रंगोके इतने करीब है, पंचप्राणोंंमे घुला हुवा…. मेरे पास गहरा रंग भला कैसे आ सकता है। मै जल जैसे ही हूं। इसलिये हमेशा निर्मल रहती हूं। तभी तो हररोज नित नयी राह देख पाती हुं।। फुलोंकी वर्षा… बुंद बुंद मे वर्षा… प्रकृति अस्तित्व संग ढल जाती हुं, खुदको अनेक रंगो मे खो देती हूं। इसलिये खुदको खूदसे मिल आती हूं। ये खुदसे खुदका मिलना ही तो प्राकृतिक जीवन है। कभी खुदसे मिलो बहोत सारी बाते मन आपसे करना चाहता है। कभी आप सुन पाते हो क्या? या सुनकर नजर अंदाज करते हो। जरा सच्चे अंदाज से एक बार नजर करो…. खुद की पहचान खुद से करने लगोगे तो खुदकी नजरोंमे पहचान बनके रहोगे।। जब ध्यान मे सबकुछ पाओगे। तो ध्यान रखना…. ध्यानसे से प्रकृृृती की ओर और चले जाओगे….
- पुण्यश्लोक अहिल्यादेवी होळकर - October 11, 2024
- आजीच्या आठवणी… - July 28, 2024
- माहित आहे का ! - July 27, 2024
12 thoughts on “ध्यान से प्रकृती की ओर…”
Beautiful philosophy to wards life like nature state… Pure💐👌
ध्यान अवस्थेचे अतिशय सुंदर वर्णन !!!
खूप सुंदर वर्णनआहे छान
खूप सुंदर वर्णन केल अाहे छान
Khup chan
सकारात्मक लेखन तरल भावना निसर्ग एकरूपता…. सर्जनशील, संवेदनशील, अविष्कार
निसर्ग चित्र आणि त्यात स्वतः भास जाणीव होत आहे.. अलौकिक डोळे मिटून अनुभव घ्यावे असे…. एक एक अनुभव
Khupach chan ho madam 👌🏻👌🏻 chatorikar
👌🙏
👌🙏 सिरसाळकर
खुपच सरल ओघवती हिंदी भाषा वर्णन.वाचायला छान वाटतय.
खुप छान👌👌👌👍👍👍
अतिशय सुरेख लेखन 👍👍