स्मृतीभस्म…

 

स्मृतीभस्म/ चलो फिरसे तांडव हो….

हाथ जोडके, श्रद्धासे आंखें बंद कर लेती हूंँ।
तेरा रूप, तेरा भाव मन में लाती हूँ।
वो हर चीज; जो अमूल्य है, तेरे चरणों में रखना चाहती हुंँ।
संसार के सारे रत्नों से तेरे वस्त्र, आसन को चमकाना चाहती हुं।।

फिर; धीरे… धीरे…
उनकी चमक फिकी पडने लगती है।
जब तेरे तेज की रोशनी; मेरी आंखों में समाने लगती है।
तब तुरंत रेशमी वस्त्र से तुझे ढक लेती  हूँ।
केसर कस्तुरी रक्तचंदन से तिलकं करं वंदन करती हुंँ। खिली, मेहकी, जुही चंपा बिल्वपत्र समर्पित भाव भी चढाती हूंँ।
चारों और से… फिर चारों और से…
उनकी सुगंध मुझे मुग्ध करती है।
और तीव्रता से मेरे शुष्क मन को स्निग्ध करती है।।

क्या तुम्हे ये स्वाद पसंद आ रहा है?
जो भोजन तुम्हे बडी प्रसन्नता से स्वीकार हो रहा है।
क्यूं नही होगा! अन्नपूर्णाकेही भावोंसे स्वर्णपात्रोंमें जो परोसा है।।

मेरे स्मित, शब्दोंकी मधुर धन्विंयां, संगीत आपको प्रसन्न करने के लिए तो है।
मेरे मन, चित्त, चेतना एकाग्र के लिए भी तो है।
तेरा प्रिय नृत्य तो मुझसे ही संगीतमय होता है।
फिर सूर ताल लय मे विलीन होता है।
मै जब पुजा के अधीन होती हुं।
हर मुद्रा आपको समर्पित करती हुंँ।।

निर्मल दर्पण मेरा मन; तुम खुद को देखो कभी उसमे।
कणकण में तुम्हारी प्रतिमा और कुछ नही शिवा जिसमें।
दीपक तो मेरे मन का रातों दिन जलता ही रहता है।
फिर क्यूं तुम्हे उजालों का पता नही चलता है।
मैं निसदिन ऐसी आराधना, करती हुँ।
कब तक ऐसे मानसपूजा करती रहूंगी?
तेरेही दर्शन से वंचित रहूंगी?
हे शंकरजी आत्मा तुम हो; प्राण,शरीर,मृत्यू आपके अधीन है।
फिर भी हम इतने पराधीन क्यूं है?

क्या तुम आँखे खोलना नही चाहते हो!
या भक्तों को देखना नही चाहते हो!
सदियों से बंद कमरे मे सोये हो।
बोलो!! क्या तुम्हे बंदिस्त रहना अच्छा लगता है?
निद्रिस्त होकर सब सहना सच्चा लगता है?

कौन से विचार मे गडे लीन हो?
शांत बैठना शोभा नही देता! ये कंहा आके विलीन हो??
तुम्हारा दम नही घुटता अंधेरो में?
या आना नही चाहते  खुली हवाओं में ?
उठो ना!! कितने बेजांन पडे हो।
भोर होने आई है फिर भी चुपचाप सून पडे हो।।

जब भी तेरे मंदिर की जमींपर
पाव रखती हुँ।
अंदर से बाहर तक कांप उठती हुंँ। कैसे तलवार, हथौडे  दिवार पर चलाये थे।
तेरे साथ खडे इन खंबो के संग हम भी तो गिरने लगे थे।
तब तेरे मंदिर के सारे पत्थर…..
फूट फूट कर रोने लगे थे।।
इक इक पत्थर अब भी बिखरा पडा है।
तेरे भग्नावशेषोंपर मंदिर खडा है!

जागो!  उठकर देखो !
कौन आया है? पूजा की थाली तो ला नही सकती हाथों मे।
पर जले इतिहास की स्मृतीभस्म तो है साथ में।।

अब तेरे आसपास…
अब तेरे आसपास…
वो ओम नमः शिवाय!
की गुंज क्यूं नही सुनाई देती?
इक अकेली मेरीही आवाज; जो सुनसान हवा को है चिरती।।

किलकिले होकर, हलकेसे तेरे बंद द्वार क्यूं नही खुलते?
सच्चे भक्तों की आवाज सुनकर भी; क्या तुम नही बोलते?
मैं तो दरवाजाभी खटखटा नही सकती।
जोर से किसी को आवाज दे नही  सकती।
उस ताले की चाबी; जो हमारे अधिकार में नही है।
मेरे ही भगवान का रूप देखना साकार क्यूं नही है।।
यही सोचकर थोडी देर सब सुना नजारा देखती हुँ।
हर बार तेरे द्वार से इक ऊर्जा लेकर चलती हुँ।

आज भी फिर से…. चुपचाप
इक बार परोक्ष होकर तेरे सामने बैठी हूंँ गर्दन झुकायें।
कभी तो मेरा भगवान मुझे अंदर बुलायें।
पर तेरे मेरे बीच के द्वार पे भी
एक झिलमिल परदासा आया है।
मंदिर का नजारा धुंदलासा हो जा रहा है।
एक बार परदा तो हटाओ स्वामी।
नही तो हम कैसे कहे तुम
चेतना के अंतर्यामी।।

धीरेसे सिडीयाँ उतरते उतरते झांकती हूँ।
कैसे, क्या, क्यूं,किसने ये सब आंकती रहती हूँ।
मैने लाख कोशिश से जताई थी।
वो काली शक्ती तब भी हमपर छाई थी।
काली शक्ती आज भी माया है जादुई।
मै आखरी सांस तक तब भी लडी थी।
आखरी सांस तक आज भी खडी हुंँ।।

हमे डरा नही सकते किसी के झंडे।
तब भी उठाये थे कावड संग डंडे।
मैं तो तेरी तपस्विनी हुंँ वीर।
तेरे दोषिंयोंको तलवार से दिया था चीर।
उठा के हाथों से तेरे त्रिशूल को।
रास्ता बाहर का दिखाया था दुश्मनोंको।।

भूल गये क्या? भोले! याद नही सब कुछ भुले!
वो तुम्हारे सर्पराज रक्षक; तुम्हे जकडे थे।
तुम्हे फोडा ना जाये इसी कारण तो गले पडे थे।
देखो तो जरा!  टुकडे टुकडे होकर कैसे बिखरे पडे है।
गर अभी तुम्ही क्रोध नही आता!  तो क्या सचमुच तुम सब पत्थर से ही भरे पडे थे।।

अब तो रक्षा के लिए कोई; नागराज… नही खडे।
लटकी है उपर जालिंया; घुमते है किडे मकोडे।।

सुखा हुआ है गर्भागार….
निर्जीव शुष्क प्रसाद का आगार।
शुभ कलश कब से खाली पडा है।
पंचगंगा जल के लिए ही अडा है।
क्या ये दूध से अभिषेक करने की  चुनौती नही देना?
संघर्षसे बनी ज्योती का तेज हुं।
मेरे सामने अमां को है बिलकुल
मना।
बुंद बुंद के लिये…
कलश अधीर होता जा रहा है।
कही वो भी छलक ना जाये रोके।
क्या अब भी तुम सब रहोगे निश्चल होके।।

आंखे खोल कर देखो!
तेरे आसपास एक बदबुसी फैलाई जा रही है।
क्या! पसंदी फुलों की खुशबू याद नही रही है।
उत्सुक है वहीं के जुही चंपा के फूल।
क्या उनका भविष्य अब भी रहेगा केवल धूल।
शंकरजी! अबतक वो चंपा के फुल सहमेंसे से तुम पर आंसूं की तरह गिर रहे है।
क्या वो आंसू तुम्हे निगला नही सकते?
और कैलाशमाथे की गंगा को पिघला नही सकते?
क्या वो?
जो; नाजायज है सब कुछ उसमे डूबा नही सकते।।

देखो तो!
तुम्हारा नंदी तुम्हारे सामने नही है।
और किसी की थाली मे भरोसा गया तुम्हारे नंदी की माँ का मांस है।
हमारे मन को खाता जा रहा बस यही अहसास है।
फिर भी तुम क्रोधीत नही होते? अरे भोले! ऐसे परिस्थितींयोंमें भगवान कभी नही सोते।।

क्या तुम्हे घीन नही आती; अपने उजडते आत्मसन्मानपर।
आधे अधूरे तोडे गये पूर्वजों के आधारपर।
सारे शिल्प अहिस्ता अहिस्ता खत्म होने की  कगारपर।
अभी तक ऐसे पडे, आखरी सांसे गिन रहे है….
शायद फिरसे खडे होंगे ऐसी  बाते सुन रहे है।।

ये हमारे…
हमारे धरोहर, अस्मिता, अस्तित्व का प्रश्न है।
और फिर भी सह रहे उनके जश्न पर जश्न है।
उठो ना! कब तक तुम शांत रहोगे।
तुम्हारे उपर पडी धूल को सहोगे।

बहुत हो चुका बस एक बार डमरू अपना बजा दो।
फिर से भक्तों को तेरी सेवा में  लगा दो।
माना की तुम्हे लोगों से दूर जा कर एकांत मे रहना अच्छा लगता है।
पर क्या बंदिवान बनकर सब सहना भी सच्चा लगता है।।

अब  सिर्फ हमारे सपनो में आना छोड दो।
भले दिन रात की नींद, चैन उडा दो।
अपना झंडा फिरसे मंदिर मे लहरा दो।
क्या करूं?….
क्या करूं मैं उस आशीर्वाद का जो केवल स्वप्न मे देते आ रहे हो।
वास्तव में तो प्रश्न पे प्रश्न उपस्थित कर रहे हो।
तुम्हारे शांती विनाश योग प्रलय और वैराग्यपर।
सब मजाक बनाकर हंस रहे है हमारे दुर्भाग्यपर।
भूत प्रेत के संग रहने वाले स्मशानवासी।
उनकी आंखो से केवल परदा उठाने के लिए डरते।
सबको मार्ग दिखाने वाले एक  मंदिर का मार्ग शुरू नही करते।।

हे गंगाधर! कभी गंगा के तट पर आओ तो सही।
हिमालय की चोटी से देखो तो सही।
अब तो रामजी भी उनके मंदिर मे आ गये है।।

हमारे संयम की परीक्षा मत लेना।
सिर्फ मानस पूजा से अब आगे काम मत चलाना।
वो सब रत्न…
वो संसार के सब रत्न अब तक  संभाले हुए हुंँ; जिने महावस्त्र में था लगाना।।

सुना है….
चांद पर एक दाग हमेशा होता है।
तुम्हारे माथे के चंद्रमापर कही चांदनी का भी दाग ना हो जाये। इसे क्यूं मिटा नही सकते।
हे सृष्टी के संहार करता; क्या ये इक छोटासा संहार नही कर सकते।
खुद को जगत पिता बताते हो और बेटी का श्रद्धा स्थान भयमुक्त नही करते हो।
कहते है तुम तो सब कुछ बुरा भस्म कर देते हो।
तुम शक्ती सर्व रूप मे पूजित हो।
फिर हम बुरे से कैसे पराजित हो।।

आज तक मैने एक  नियम नही तोडा।
गलतीसे भी तेरे व्रत को नही छोडा।
अनादी काल से ज्योतिष के आधार।
फिर भी क्यूं तुम इन सबसे हो बेदकार।।
गुलाब रजनीगंधा की खुशबू से ऐसे ऐठे है।
मुलायम मयूरपंख, चद्दर ओढ के बैठे है।।
किसे? कैसे बतांऊ?
पहले से शिवशंकर जी यहा ठेहरे है।।

मेरी आस्था पे किसीने कीये  सवाल मुझे छेडेंगेही।
भले अपमान, विष के प्याले मुझे पीने पडेंगेही।
चलो….चलो…
ये विष कुछ तो भलाबुरा असर छोडेगा।
आखिर मैं क्या करू !
जो तुम बोल पडो।
अपने द्वार के साथ तिसरी आंख भी खोल पडो।।

अगर अभी जाग नही सकते। क्रोधित होकर कुछ नही कर सकते।
तो क्या.. ?
तो क्या…!
सचमुच तुम्हारा क्रोध मुझमे संक्रमित कर रहे हो।
कंही ऐसा तो नही! शंकरजी  अंदर से तुम हम सबको बुला रहे हो। तो क्या सचमुच! हमारी राह देख रहे हो।।

तो फिर सुनो मे अपने सपने पूरे करती हुं।
अब सपनो मे आना छोड दो।
मै जानती हुंँ तुमसे ही होकर हम सबमे वो शक्ती आती है।
यही शक्ती सबकुछ तो  समझाती है।।

मै साधक नही हूंँ नित्य पूजा पाठ की।
नीत तेरे मार्ग पर चलनेवालों के दिखावे ने प्रश्न मुझपर  उठाया है।
कभी हसके बोला तू और तेरा नौटंकी भगवान झुठा है।
बस इसी; इसी बात ने मुझे फिर से तेरे द्वार पे आके बिठाया है।।

न खुलेगा तेरा द्वार अब जानती हुंँ।
पर तेरे चेतना अंतर्यामी है पूरे विश्वास से मानती हुंँ।
जीवनदायी की पहली किरण से भरा हुआ हर कोना, चमकता हुआ तेरा रूप, बस तेरे मंदिर मे उजाला चाहती हुंँ।।

हे महादेव द्वार क्यूं नही खोलते! कही सदियों से सब तेरा दर्शन चाहते ।।

अब सबको अधिष्ठानके मंत्र तुझेही सुनाने होंगे।
फिर नाक रगड के माथे टेकने होंगे।
ओम नमः शिवाय
की आवाज से गुंजता होगा मंजर।
हमारे हाथों से इसी स्थान पर तुम्हे बिठायेंगे हे शिवशंकर।
फिर कोई तुम्हे यहां से हिलायेगा नही।
न होगा कभी तुम्हारा अनादर।।

मै तो हर शिवरात्री तेरे द्वार पे आती रही हुंँ।
सब देखकर भी विचलित नही होती हुंँ।
बस यंहा तेरा अस्तित्व महेसुस करती हुँ।।

इच्छाधारी तो नही मै।
पर जरूर तेरी इच्छा से आई हुं मै ।
फिर अब तक हर नौटंकीवाला  जीता; बडा क्यूं है।
मेरे सामने हर बार यही सवाल खडा क्यूं है।
कुछ तो बेकार सी पूजा मे रत है।
क्या करे उन्हे खुद के स्वार्थी लाभ की लत है।
जो है सबकुछ बुरा भस्म कर देते हो।
तो ये क्यूं नही। अज्ञान क्यूं नही।।

चलो! कैलाश से उतर आओ।
या कालंजर जंगल से बाहर निकल आओ।
हे निरंकार कालभैरव…
तेरे दोषी तो मुझे स्वप्न में भी पसंद नही।
प्रत्यक्ष फिर तेरी मुक्तता का मार्ग अग्नीपथही सही।
तुम तो शून्य से ब्रम्हांड हो।
चलो फिर से शुरू ये तांडव हो।
चलो फिरसे शुरू ये तांडव हो।

©®  श्रीमती मुंडे वर्षा

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